दुर्गा सप्तशती पाठ विधि


दुर्गा सप्तशती को सिद्ध कैसे करें- 


सामान्य विधि : 
नवार्ण मंत्र जप और सप्तशती न्यास के बाद तेरह अध्यायों का क्रमशः पाठ, प्राचीन काल में कीलक, कवच और अर्गला का पाठ भी सप्तशती के मूल मंत्रों के साथ ही किया जाता रहा है। आज इसमें अथर्वशीर्ष, कुंजिका मंत्र, वेदोक्त रात्रि देवी सूक्त आदि का पाठ भी समाहित है जिससे साधक एक घंटे में देवी पाठ करते हैं। 

वाकार विधि :
यह विधि अत्यंत सरल मानी गयी है। इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है। 

संपुट पाठ विधि :
किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-1, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है।

सार्ध नवचण्डी विधि : 
इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं। एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है। (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ''देवा उचुः- नमो देव्ये महादेव्यै'' से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण कार्य की पूर्णता मानी जाती है। एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। इस प्रकार कुल ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा नवचण्डी विधि द्वारा सप्तशती का पाठ होता है। पाठ पश्चात् उत्तरांग करके अग्नि स्थापना कर पूर्णाहुति देते हुए हवन किया जाता है जिसमें नवग्रह समिधाओं से ग्रहयोग, सप्तशती के पूर्ण मंत्र, श्री सूक्त वाहन तथा शिवमंत्र 'सद्सूक्त का प्रयोग होता है जिसके बाद ब्राह्मण भोजन,' कुमारी का भोजन आदि किया जाता है। वाराही तंत्र में कहा गया है कि जो ''सार्धनवचण्डी'' प्रयोग को संपन्न करता है वह प्राणमुक्त होने तक भयमुक्त रहता है, राज्य, श्री व संपत्ति प्राप्त करता है। 

शतचण्डी विधि :
मां की प्रसन्नता हेतु किसी भी दुर्गा मंदिर के समीप सुंदर मण्डप व हवन कुंड स्थापित करके (पश्चिम या मध्य भाग में) दस उत्तम ब्राह्मणों (योग्य) को बुलाकर उन सभी के द्वारा पृथक-पृथक मार्कण्डेय पुराणोक्त श्री दुर्गा सप्तशती का दस बार पाठ करवाएं। इसके अलावा प्रत्येक ब्राह्मण से एक-एक हजार नवार्ण मंत्र भी करवाने चाहिए। शक्ति संप्रदाय वाले शतचण्डी (108) पाठ विधि हेतु अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा का दिन शुभ मानते हैं। इस अनुष्ठान विधि में नौ कुमारियों का पूजन करना चाहिए जो दो से दस वर्ष तक की होनी चाहिए तथा इन कन्याओं को क्रमशः कुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शाम्भवी, दुर्गा, चंडिका तथा मुद्रा नाम मंत्रों से पूजना चाहिए। इस कन्या पूजन में संपूर्ण मनोरथ सिद्धि हेतु ब्राह्मण कन्या, यश हेतु क्षत्रिय कन्या, धन के लिए वेश्य तथा पुत्र प्राप्ति हेतु शूद्र कन्या का पूजन करें। इन सभी कन्याओं का आवाहन प्रत्येक देवी का नाम लेकर यथा ''मैं मंत्राक्षरमयी लक्ष्मीरुपिणी, मातृरुपधारिणी तथा साक्षात् नव दुर्गा स्वरूपिणी कन्याओं का आवाहन करता हूं तथा प्रत्येक देवी को नमस्कार करता हूं।'' इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए। वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर कलश स्थापना कर पूजन करें। शतचण्डी विधि अनुष्ठान में यंत्रस्थ कलश, श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषी, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी 50 क्षेत्रपाल तथा अन्याय देवताओं का वैदिक पूजन होता है। जिसके पश्चात् चार दिनों तक पूजा सहित पाठ करना चाहिए। पांचवें दिन हवन होता है। 

इन सब विधियों (अनुष्ठानों) के अतिरिक्त प्रतिलोम विधि, कृष्ण विधि, चतुर्दशीविधि, अष्टमी विधि, सहस्त्रचण्डी विधि (1008) पाठ, ददाति विधि, प्रतिगृहणाति विधि आदि अत्यंत गोपनीय विधियां भी हैं जिनसे साधक इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है।

श्री दुर्गासप्तशती अनुष्ठान विधि

श्री दुर्गासप्तशती महायज्ञ / अनुष्ठान विधि 

भगवती मां दुर्गाजी की प्रसन्नता के लिए जो अनुष्ठान किये जाते हैं उनमें दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान विशेष कल्याणकारी माना गया है। इस अनुष्ठान को ही शक्ति साधना भी कहा जाता है। शक्ति मानव के दैनन्दिन व्यावहारिक जीवन की आपदाओं का निवारण कर ज्ञान, बल, क्रिया शक्ति आदि प्रदान कर उसकी धर्म-अर्थ काममूलक इच्छाओं को पूर्ण करती है एवं अंत में आलौकिक परमानंद का अधिकारी बनाकर उसे मोक्ष प्रदान करती है। दुर्गा सप्तशती एक तांत्रिक पुस्तक होने का गौरव भी प्राप्त करती है। भगवती शक्ति एक होकर भी लोक कल्याण के लिए अनेक रूपों को धारण करती है। श्वेतांबर उपनिषद के अनुसार यही आद्या शक्ति त्रिशक्ति अर्थात महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में प्रकट होती है। इस प्रकार पराशक्ति त्रिशक्ति, नवदुर्गा, दश महाविद्या और ऐसे ही अनंत नामों से परम पूज्य है। श्री दुर्गा सप्तशती नारायणावतार श्री व्यासजी द्वारा रचित महा पुराणों में मार्कण्डेयपुराण से ली गयी है। इसम सात सौ पद्यों का समावेश होने के कारण इसे सप्तशती का नाम दिया गया है। तंत्र शास्त्रों में इसका सर्वाधिक महत्व प्रतिपादित है और तांत्रिक प्रक्रियाओं का इसके पाठ में बहुधा उपयोग होता आया है। पूरे दुर्गा सप्तशती में 360 शक्तियों का वर्णन है। इस पुस्तक में तेरह अध्याय हैं। शास्त्रों के अनुसार शक्ति पूजन के साथ भैरव पूजन भी अनिवार्य माना गया है। अतः अष्टोत्तरशतनाम रूप बटुक भैरव की नामावली का पाठ भी दुर्गासप्तशती के अंगों में जोड़ दिया जाता है। इसका प्रयोग तीन प्रकार से होता है। 

[ 1.] नवार्ण मंत्र के जप से पहले भैरवो भूतनाथश्च से प्रभविष्णुरितीवरितक या नमोऽत्त नामबली या भैरवजी के मूल मंत्र का 108 बार जप। 
[ 2.] प्रत्येक चरित्र के आद्यान्त में 1-1 पाठ।
[ 3.] प्रत्येक उवाचमंत्र के आस-पास संपुट देकर पाठ। नैवेद्य का प्रयोग अपनी कामनापूर्ति हेतु दैनिक पूजा में नित्य किया जा सकता है। यदि मां दुर्गाजी की प्रतिमा कांसे की हो तो विशेष फलदायिनी होती है। 

श्री दुर्गासप्तशती का अनुष्ठान कैसे करें। 
1. कलश स्थापना
 2. गौरी गणेश पूजन 
3. नवग्रह पूजन 
4. षोडश मातृकाओं का पूजन 
5. कुल देवी का पूजन 
6. मां दुर्गा जी का पूजन निम्न प्रकार से करें।

आवाहन : आवाहनार्थे पुष्पांजली सर्मपयामि। 
आसन : आसनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि। 
पाद : पाद्यर्यो : पाद्य समर्पयामि। 
अर्घ्य : हस्तयो : अर्घ्य स्नानः । 
आचमन : आचमन समर्पयामि। 
स्नान : स्नानादि जलं समर्पयामि। 
स्नानांग : आचमन : स्नानन्ते पुनराचमनीयं जलं समर्पयामि। 
दुधि स्नान : दुग्ध स्नान समर्पयामि। 
दहि स्नान : दधि स्नानं समर्पयामि। 
घृत स्नान : घृतस्नानं समर्पयामि। 
शहद स्नान : मधु स्नानं सर्मपयामि। 
शर्करा स्नान : शर्करा स्नानं समर्पयामि। 
पंचामृत स्नान : पंचामृत स्नानं समर्पयामि।
गन्धोदक स्नान : गन्धोदक स्नानं समर्पयामि 
शुद्धोदक स्नान : शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि
वस्त्र : वस्त्रं समर्पयामि 
सौभाग्य सूत्र : सौभाग्य सूत्रं समर्पयामि
चदंन : चदंन समर्पयामि
हरिद्रा : हरिद्रा समर्पयामि 
कुंकुम : कुंकुम समर्पयामि 
आभूषण : आभूषणम् समर्पयामि 
पुष्प एवं पुष्प माला : पुष्प एवं पुष्पमाला समर्पयामि 
फल : फलं समर्पयामि 
भोग (मेवा) : भोगं समर्पयामि 
मिष्ठान : मिष्ठानं समर्पयामि 
धूप : धूपं समर्पयामि। 
दीप : दीपं दर्शयामि। 
नैवेद्य : नैवेद्यं निवेदयामि। 
ताम्बूल : ताम्बूलं समर्पयामि। 

भैरवजी का पूजन करें इसके बाद कवच, अर्गला, कीलक का पाठ करें। यदि हो सके तो देव्यऽथर्वशीर्ष, दुर्गा की बत्तीस नामवली एवं कुंजिकस्तोत्र का पाठ करें। नवार्ण मंत्र : ''ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै'' का जप एक माला करें एवं रात्रि सूक्त का पाठ करने के बाद श्री दुर्गा सप्तशती का प्रथम अध्याय से पाठ शुरू कर तेरह अध्याय का पाठ करें। पाठ करने के बाद देवी सूक्त एवं नर्वाण जप एवं देवी रहस्य का पाठ करें। इसके बाद क्षमा प्रार्थना फिर आरती करें। पाठ प्रारंभ करने से पहले संकल्प अवश्य हो। पाठ किस प्रयोजन के लिए कर रहे हैं यह विनियोग में स्पष्ट करें।

 दुर्गासप्तशती के पाठ में ध्यान देने योग्य कुछ बातें 
1. दुर्गा सप्तशती के किसी भी चरित्र का आधा पाठ ना करें एवं न कोई वाक्य छोड़े। 
2. पाठ को मन ही मन में करना निषेध माना गया है। अतः मंद स्वर में समान रूप से पाठ करें। 
3. पाठ केवल पुस्तक से करें यदि कंठस्थ हो तो बिना पुस्तक के भी कर सकते हैं। 
4. पुस्तक को चौकी पर रख कर पाठ करें। हाथ में ले कर पाठ करने से आधा फल प्राप्त होता है। 
5. पाठ के समाप्त होने पर बालाओं व ब्राह्मण को भोजन करवाएं। 

अभिचार कर्म में नर्वाण मंत्र का प्रयोग 
1. मारण : ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै देवदत्त रं रं खे खे मारय मारय रं रं शीघ्र भस्मी कुरू कुरू स्वाहा। 
2. मोहन : क्लीं क्लीं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदत्तं क्लीं क्लीं मोहन कुरू कुरू क्लीं क्लीं स्वाहा॥ 
3. स्तम्भन : ऊँ ठं ठं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदत्तं ह्रीं वाचं मुखं पदं स्तम्भय ह्रीं जिहवां कीलय कीलय ह्रीं बुद्धि विनाशय -विनाशय ह्रीं। ठं ठं स्वाहा॥ 
4. आकर्षण : ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदतं यं यं शीघ्रमार्कषय आकर्षय स्वाहा॥
 5. उच्चाटन : ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदत्त फट् उच्चाटन कुरू स्वाहा। 
6. वशीकरण : ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदत्तं वषट् में वश्य कुरू स्वाहा। 

नोट : मंत्र में जहां देवदत्तं शब्द आया है वहां संबंधित व्यक्ति का नाम लेना चाहिए।




दुर्गासप्तशती रहस्य

दुर्गासप्तशती पाठ शक्ति उपासना का सुंदरकांड है। इस पृष्ठ पर शक्ति उपासना नवरात्र व्रत पर्व महिमा, दुर्गासप्तशती पाठ विधि, ५१ शक्तिपीठ, दशमहाविद्या, ग्रह पीड़ानिवारण हेतु शक्ति उपासना आदि महत्वपूर्ण विषयों की विस्तृत जानकारी उपलब्ध है। इन लेखों का पठन करने से आपको शक्ति उपासना, देवी महिमा व दुर्गापूजा पर्व के सूक्ष्म रहस्यों का ज्ञान प्राप्त होगा।


ॐ अस्य श्रीसप्तशतीरहस्यत्रयस्य नारायण ऋषिरनुष्टुप्छन्द:, महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवता यथोक्तफलावाप्त्यर्थ जपे विनियोग:। 

 अर्थ :- ॐ सप्तशती के इन तीनों रहस्यों के नारायण ऋषि, अनुष्टुप् छन्द तथा महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती देवता हैं। शास्त्रोक्त फल की प्राप्ति के लिये जप में इनका विनियोग होता है।

अथ मूर्तिरहस्यम्

ऋषिरुवाच ॐ नन्दा भगवती नाम या भविष्यति नन्दजा। स्तुता सा पूजिता भक्त्या वशीकुर्याज्जगत्त्रयम्॥1॥
अर्थ :- ऋषि कहते हैं- राजन्! नन्दा नाम की देवी जो नन्द से उत्पन्न होने वाली हैं, उनकी यदि भक्ति पूर्वक स्तुति और पूजा की जाय तो वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं॥1॥ 

कनकोत्तमकान्ति: सा सुकान्तिकनकाम्बरा। देवी कनकवर्णाभा कनकोत्तमभूषणा॥2॥ 
उनके श्रीअङ्गों की कान्ति कनक के समान उत्तम है। वे सुनहरे रंग के सुन्दर वस्त्र धारण करती हैं। उनकी आभा सुवर्ण के तुल्य है तथा वे सुवर्ण के ही उत्तम आभूषण धारण करती हैं॥2॥ 

कमलाङ्कुशपाशाब्जैरलंकृतचतुर्भुजा। इन्दिरा कमला लक्ष्मी: सा श्री रुक्माम्बुजासना॥3॥ 
उनकी चार भुजाएँ कमल, अङ्कुश, पाश और शङ्ख से सुशोभित हैं। वे इन्दिरा, कमला, लक्ष्मी, श्री तथा रुक्माम्बुजासना (सुवर्णमय कमल के आसन पर विराजमान) आदि नामों से पुकारी जाती हैं॥3॥

या रक्त दन्तिका नाम देवी प्रोक्ता मयानघ। तस्या: स्वरूपं वक्ष्यामि शृणु सर्वभयापहम्॥4॥
निष्पाप नरेश! पहले मैंने रक्त दन्तिका नाम से जिन देवी का परिचय दिया है, अब उनके स्वरूप का वर्णन करूँगा; सुनो। वह सब प्रकार के भयों को दूर करने वाली है॥4॥

रक्ताम्बरा रक्त वर्णा रक्तसर्वाङ्गभूषणा। रक्तायुधा रक्त नेत्रा रक्त केशातिभीषणा॥5॥
रक्त तीक्ष्णनखा रक्त दशना रक्त दन्तिका। पतिं नारीवानुरक्ता देवी भक्तं भजेज्जनम्॥6॥
 वे लाल रंग के वस्त्र धाण करती हैं। उनके शरीर का रंग भी लाल ही है और अङ्गों के समस्त आभूषण भी लाल रंग के हैं। उनके अस्त्र-शस्त्र, नेत्र, शिर के बाल, तीखे नख और दाँत सभी रक्त वर्ण के हैं; इसलिये वे रक्त दन्तिका कहलाती और अत्यन्त भयानक दिखायी देती हैं। जैसे स्त्री पति के प्रति अनुराग रखती है, उसी प्रकार देवी अपने भक्त पर (माता की भाँति) स्नेह रखते हुए उसकी सेवा करती हैं॥5-6॥

वसुधेव विशाला सा सुमेरुयुगलस्तनी। दीर्घौ लम्बावतिस्थूलौ तावतीव मनोहरौ॥7॥
कर्कशावतिकान्तौ तौ सर्वानन्दपयोनिधी। भक्तान् सम्पाययेद्देवी सर्वकामदुघौ स्तनौ॥8॥ 
 देवी रक्त दन्तिका का आकार वसुधा की भाँति विशाल है। उनके दोनों स्तन सुमेरु पर्वत के समान हैं। वे लंबे, चौडे, अत्यन्त स्थूल एवं बहुत ही मनोहर हैं। कठोर होते हुए भी अत्यन्त कमनीय हैं तथा पूर्ण आनन्द के समुद्र हैं। सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति करने वाले ये दोनों स्तन देवी अपने भक्त कों को पिलाती हैं॥7-8॥

खड्गं पात्रं च मुसलं लाङ्गलं च बिभर्ति सा। आख्याता रक्त चामुण्डा देवी योगेश्वरीति च॥9॥
 वे अपनी चार भुजाओं में खड्ग, पानपात्र, मुसल और हल धारण करती हैं। ये ही रक्त चामुण्डा और योगेश्वरी देवी कहलाती हैं॥9॥

अनया व्याप्तमखिलं जगत्स्थावरजङ्गमम्। इमां य: पूजयेद्भक्त्या स व्यापनेति चराचरम्॥10॥
 इनके द्वारा सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त है। जो इन रक्त दन्तिका देवी का भक्ति पूर्वक पूजन करता है, वह भी चराचर जगत् में व्याप्त होता है॥10॥

(भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमापनुयात्।) अधीते य इमं नित्यं रक्त दन्त्या वपु:स्तवम्। तं सा परिचरेद्देवी पतिं प्रियमिवाङ्गना॥11॥ 
 (वह यथेष्ट भोगों को भोगकर अन्त में देवी के साथ सायुज्य प्राप्त कर लेता है।) जो प्रतिदिन रक्तदन्तिका देवी के शरीर का यह स्तवन करता है, उसकी वे देवी प्रेमपूर्वक संरक्षणरूप सेवा करती हैं ठीक उसी तरह, जैसे पतिव्रता नारी अपने प्रियतम पति की परिचर्या करती है॥11॥

शाकम्भरी नीलवर्णा नीलोत्पलविलोचना। गम्भीरनाभिस्त्रिवलीविभूषिततनूदरी॥12॥ 
 शाकम्भरी देवी के शरीर की कान्ति नीले रंग की है! उनके नेत्र नील कमल के समान हैं, नाभि नीची है तथा त्रिवली से विभूषित उदर (मध्यभाग) सूक्ष्म है॥12॥ 

सुकर्कशसमोत्तुङ्गवृत्तपीनघनस्तनी। मुष्टिं शिलीमुखापूर्णं कमलं कमलालया॥13॥ 
पुष्पपल्लवमूलादिफलाढयं शाकसञ्चयम्। काम्यानन्तरसैर्युक्तं क्षुत्तृण्मृत्युभयापहम्॥14॥
कार्मुकं च स्फुरत्कान्ति बिभ्रती परमेश्वरी। शाकम्भरी शताक्षी सा सैव दुर्गा प्रकीर्तिता॥15॥
उनके दोनों स्तन अत्यन्त कठोर, सब ओर से बराबर, ऊँचे, गोल, स्थूल तथा परस्पर सटे हुए हैं। वे परमेश्वरी कमल में निवास करने वाली हैं और हाथों में बाणों से भरी मुष्टि, कमल, शाक-समूह तथा प्रकाशमान धनुष धारण करती हैं। वह शाकसमूह अनन्त मनोवाञ्िछत रसों से युक्त तथा क्षुधा, तृषा और मृत्यु के भय को नष्ट करने वाला तथा फूल, पल्लव, मूल आदि एवं फलों से सम्पन्न है। वे ही शाकम्भरी, शताक्षी तथा दुर्गा कही गयी हैं॥13-15॥

विशोका दुष्टदमनी शमनी दुरितापदाम्। उमा गौरी सती चण्डी कालिका सा च पार्वती॥16॥
 वे शोक से रहित, दुष्टों का दमन करने वाली तथा पाप और विपत्ति को शान्त करने वाली हैं। उमा, गौरी, सती, चण्डी, कालिका और पार्वती भी वे ही हैं॥16॥ 

शाकम्भरीं स्तुवन् ध्यायञ्जपन् सम्पूजयन्नमन्। अक्षय्यमश्रुते शीघ्रमन्नपानामृतं फलम्॥17॥
जो मनुष्य शाकम्भरी देवी की स्तुति, ध्यान, जप, पूजा और वन्दन करता है, वह शीघ्र ही अन्न, पान एवं अमृतरूप अक्षय फल का भागी होता है॥17॥ 

भीमापि नीलवर्णा सा दंष्ट्रादशनभासुरा। विशाललोचना नारी वृत्तपीनपयोधरा॥18॥
चन्द्रहासं च डमरुं शिर: पात्रं च बिभ्रती। एकावीरा कालरात्रि: सैवोक्ता कामदा स्तुता॥19॥
भीमादेवी का वर्ण भी नील ही है। उनकी दाढें और दाँत चमकते रहते हैं। उनके नेत्र बडे-बडे हैं, स्वरूप स्त्री का है, स्तन गोल-गोल और स्थूल हैं। वे अपने हाथों में चन्द्रहास नामक खड्ग, डमरू, मस्तक और पानपात्र धारण करती हैं। वे ही एकवीरा, कालरात्रि तथा कामदा कहलाती और इन नामों से प्रशंसित होती हैं॥18-19॥

तजोमण्डलुदुर्धर्षा भ्रामरी चित्रकान्तिभृत्। चित्रानुलेपना देवी चित्राभरणभूषिता॥20॥
 भ्रामरी देवी की कान्ति विचित्र (अनेक रंग की) है। वे अपने तेजोमण्डल के कारण दुर्धर्ष दिखायी देती हैं। उनका अङ्गराग भी अनेक रंग का है तथा वे चित्र-विचित्र आभूषणों से विभूषित हैं॥20॥ 

चित्रभ्रमरपाणि: सा महामारीति गीयते। इत्येता मूर्तयो देव्या या: ख्याता वसुधाधिप॥21॥ 
चित्रभ्रमरपाणि और महामारी आदि नामों से उनकी महिमा का गान किया जाता है। राजन्! इस प्रकार जगन्माता चण्डिका देवी की ये मूर्तियाँ बतलायी गयी हैं॥21॥ 

जगन्मातुश्चण्डिकाया: कीर्तिता: कामधेनव:। इदं रहस्यं परमं न वाच्यं कस्यचित्त्‍‌वया॥22॥
जो कीर्तन करने पर कामधेनु के समान सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करती हैं। यह परम गोपनीय रहस्य है। इसे तुम्हें दूसरे किसी को नहीं बतलाना चाहिए॥22॥ 

व्याख्यानं दिव्यमूर्तीनामभीष्टफलदायकम्। तस्मात् सर्वप्रयत्‍‌नेन देवीं जप निरन्तरम्॥23॥ 
दिव्य मूर्तियों का यह आख्यान मनोवाञ्छित फल देने वाला है, इसलिये पूर्ण प्रयत्‍‌न करके तुम निरन्तर देवी के जप (आराधन) में लगे रहो॥23॥ 

सप्तजन्मार्जितैर्घोरै‌र्ब्रह्महत्यासमैरपि। पाठमात्रेण मन्त्राणां मुच्यते सर्वकिल्बिषै:॥24॥
सप्तशती के मन्त्रों के पाठमात्र से मनुष्य सात जन्मों में उपार्जित ब्रह्महत्यासदृश घोर पातकों एवं समस्त कल्मषों से मुक्त हो जाता है॥ 24॥

देव्या ध्यानं मया ख्यातं गुह्याद् गुह्यतरं महत्। तस्मात् सर्वप्रयत्‍‌नेन सर्वकामफलप्रदम्॥25॥
 इसलिये मैंने पूर्ण प्रयत्‍‌न करके देवी के गोपनीय से भी अत्यन्त गोपनीय ध्यान का वर्णन किया है, जो सब प्रकार के मनोवाञ्छित फलों को देने वाला है॥25॥ 

(एतस्यास्त्वं प्रसादेन सर्वमान्यो भविष्यसि। सर्वरूपमयी देवी सर्व देवीमयं जगत्। अतोऽहं विश्वरूपां तां नमामि परमेश्वरीम्।) 
(उनके प्रसाद से तुम सर्वमान्य हो जाओगे। देवी सर्वरूपमयी हैं तथा सम्पूर्ण जगत् देवीमय है। अत: मैं उन विश्वरूपा परमेश्वरी को नमस्कार करता हूँ।)

अथ वैकृतिकं रहस्यम्

ॐ त्रिगुणा तामसी देवी सात्त्विकी या त्रिधोदिता। सा शर्वा चण्डिका दुर्गा भद्रा भगवतीर्यते॥1॥
अर्थ :- ऋषि कहते हैं- राजन्! पहले जिन सत्त्‍‌वप्रधाना त्रिगुणामयी महालक्ष्मी के तामसी आदि भेद से तीन स्वरूप बतलाये गये, वे ही शर्वा, चण्डिका, दुर्गा, भद्रा और भगवती आदि अनेक नामों से कही जाती हैं॥1॥ 

योगनिद्रा हरेरुक्ता महाकाली तमोगुणा। मधुकैटभनाशार्थ यां तुष्टावाम्बुजासन:॥2॥ 
तमोगुणमयी महाकाली भगवान् विष्णु की योगनिद्रा कही गयी हैं। मधु और कैटभ का नाश करने के लिये ब्रह्माजी ने जिनकी स्तुति की थी, उन्हीं का नाम महाकाली है॥2॥

दशवक्त्रा दशभुजा दशपादाञ्जनप्रभा। विशालया राजमाना त्रिंशल्लोचनमालया॥3॥ 
 उनके दस मुख, दस भुजाएँ और दस पैर हैं। वे काजल के समान काले रंग की हैं अथा तीस नेत्रों की विशाल पंक्ति से सुशोभित होती हैं॥3॥ 

स्फुरद्दशनदंष्ट्रा सा भीमरूपापि भूमिप। रूपसौभाग्यकान्तीनां सा प्रतिष्ठा महाश्रिय:॥4॥ 
भूपाल! उनके दाँत और दाढें चमकती रहती हैं। यद्यपि उनका रूप भयंकर है, तथापि वे रूप, सौभाग्य, कान्ति एवं महती सम्पदा की अधिष्ठान (प्राप्तिस्थान) हैं॥4॥ 

खड्गबाणगदाशूलचक्रशङ्खभुशुण्डिभृत्। परिघं कार्मुकं शीर्ष निश्च्योतद्रुधिरं दधौ॥5॥

वे अपने हाथों में खड्ग, बाण, गदा, शूल, चक्र, शङ्ख, भुशुण्डि, परिघ, धनुष तथा जिससे रक्त चूता रहता है, ऐसा कटा हुआ मस्तक धारण करती हैं॥5॥ 


एषा सा वैष्णवी माया महाकाली दुरत्यया। आराधिता वशीकुर्यात् पूजाकर्तुश्चराचरम्॥6॥ 
 ये महाकाली भगवान् विष्णु की दुस्तर माया हैं। आराधना करने पर ये चराचर जगत् को अपने उपासक के अधीन कर देती हैं॥6॥

सर्वदेवशरीरेभ्यो याऽऽविर्भूतामितप्रभा। त्रिगुणा सा महालक्ष्मी: साक्षान्महिषमर्दिनी॥7॥ 
 सम्पूर्ण देवताओं के अङ्गों से जिनका प्रादुर्भाव हुआ था, वे अनन्त कान्ति से युक्त साक्षात् महालक्ष्मी हैं। उन्हें ही त्रिगुणमयी प्रकृति कहते हैं तथा वे ही महिषासुर का मर्दन करने वाली हैं॥7॥ 

श्वेतानना नीलभुजा सुश्वेतस्तनमण्डला। रक्त मध्या रक्त पादा नीलजङ्घोरुरुन्मदा॥8॥ 
उनका मुख गोरा, भुजाएँ श्याम, स्तनमण्डल अत्यन्त श्वेत, कटिभाग और चरण लाल तथा जङ्घा और पिंडली नीले रंग की हैं। अजेय होने के कारण उनको अपने शौर्य का अभिमान है॥8॥ 

सुचित्रजघना चित्रमाल्याम्बरविभूषणा। चित्रानुलेपना कान्तिरूपसौभाग्यशालिनी॥9॥ 
कटिके आगे का भाग बहुरंगे वस्त्र से आच्छादित होने के कारण अत्यन्त सुन्दर एवं विचित्र दिखायी देता है। उनकी माला, वस्त्र, आभूषण तथा अङ्गराग सभी विचित्र हैं। वे कान्ति, रूप और सौभाग्य से सुशोभित हैं॥9॥ 

अष्टादशभुजा पूज्या सा सहस्त्रभुजा सती। आयुधान्यत्र वक्ष्यन्ते दक्षिणाध:करक्रमात्॥10॥ 
यद्यपि उनकी हजारों भुजाएँ हैं, तथापि उन्हें अठारह भुजाओं से युक्त मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये। अब उनके दाहिनी ओर के निचले हाथों से लेकर बायीं ओर के निचले हाथों तक में क्रमश: जो अस्त्र हैं, उनका वर्णन किया जाता है॥10॥ 

अक्षमाला च कमलं बाणोऽसि: कुलिशं गदा। चक्रं त्रिशूलं परशु: शङ्खो घण्टा च पाशक:॥11॥ 
शक्तिर्दण्डश्चर्म चापं पानपात्रं कमण्डलु:। अलंकृतभुजामेभिरायुधै: कमलासनाम्॥12॥ 
सर्वदेवमयीमीशां महालक्ष्मीमियां नृप। पूजयेत्सर्वलोकानां स देवानां प्रभुर्भवेत्॥13॥ 
अक्षमाला, कमल, बाण, खड्ग, वज्र, गदा, चक्र, त्रिशूल, परशु, शङ्ख, घण्टा, पाश, शक्ति दण्ड, चर्म (ढाल), धनुष, पानपात्र और कमण्डलु- इन आयुधों से उनकी भुजाएँ विभूषित हैं। वे कमल के आसन पर विराजमान हैं, सर्वदेवमयी हैं तथा सबकी ईश्वरी हैं। राजन्! जो इन महालक्ष्मी देवी का पूजन करता है, वह सब लोकों तथा देवताओं का भी स्वामी होता है॥11-13॥ 

गौरीदेहात्समुद्भूता या सत्त्‍‌वैकगुणाश्रया। साक्षात्सरस्वती प्रोक्ता शुम्भासुरनिबर्हिणी॥14॥
जो एकमात्र सत्त्‍‌वगुण के आश्रित हो पार्वतीजी के शरीर से प्रकट हुई थीं तथा जिन्होंने शुम्भ नामक दैत्य का संहार किया था, वे साक्षात् सरस्वती कही गयी हैं॥14॥ 

दधौ चाष्टभुजा बाणमुसले शूलचक्रभृत्। शङ्खं घण्टां लाङ्गलं च कार्मुकं वसुधाधिप॥15॥
पृथ्वीपते! उनके आठ भुजाएँ हैं तथा वे अपने हाथों में क्रमश: बाण, मुसल, शूल, चक्र, शङ्ख, घण्टा, हल एवं धनुष धारण करती हैं॥15॥ 

एषा सम्पूजिता भक्त्या सर्वज्ञत्वं प्रयच्छति। निशुम्भमथिनी देवी शुम्भासुरनिबर्हिणी॥16॥
ये सरस्वती देवी, जो निशुम्भ का मर्दन तथा शुम्भासुर का संहार करने वाली हैं, भक्ति पूर्वक पूजित होने पर सर्वज्ञता प्रदान करती हैं॥16॥

इत्युक्तानि स्वरूपाणि मूर्तीनां तव पार्थिव। उपासनं जगन्मातु: पृथगासां निशामय॥17॥ 
राजन! इस प्रकार तुमसे महाकाली आदि तीनों मूर्तियों के स्वरूप बतलाये, अब जगन्माता महालक्ष्मी की तथा इन महाकाली आदि तीनों मूर्तियों की पृथक्-पृथक् उपासना श्रवण करो॥17॥ 

महालक्ष्मीर्यदा पूज्या महाकाली सरस्वती। दक्षिणोत्तरयो: पूज्ये पृष्ठतो मिथुनत्रयम्॥18॥ 
जब महालक्ष्मी की पूजा करनी हो, तब उन्हें मध्य में स्थापित करके उनके दक्षिण और वाम भाग में क्रमश: महाकाली और महासरस्वती का पूजन करना चाहिये और पृष्ठ भाग में तीनों युगल देवताओं की पूजा करनी चाहिये॥18॥ 

विरञ्चि: स्वरया मध्ये रुद्रो गौर्या च दक्षिणे। वामे लक्ष्म्या हृषीकेश: पुरतो देवतात्रयम्॥19॥ 
महालक्ष्मी के ठीक पीछे मध्य भाग में सरस्वती के साथ ब्रह्मा का पूजन करे। उनके दक्षिण भाग में गौरी के साथ रुद्र की पूजा करे तथा वामभाग में लक्ष्मी सहित विष्णु का पूजन करे। महालक्ष्मी आदि तीनों देवियों के सामने निमनङ्कित तीन देवियों की भी पूजा करनी चाहिये॥19॥

अष्टादशभुजा मध्ये वामे चास्या दशानना। दक्षिणेऽष्टभुजा लक्ष्मीर्महतीति समर्चयेत्॥20॥
मध्यस्थ महालक्ष्मी के आगे मध्यभाग में अठारह भुजाओं वाली महालक्ष्मी का पूजन करे। उनके वामभाग में दस मुखों वाली महाकाली का तथा दक्षिणभाग में आठ भुजाओं वाली महासरस्वती का पूजन करे॥20॥ 

अष्टादशभुजा चैषा यदा पूज्या नराधिप। दशानना चाष्टभुजा दक्षिणोत्तरयोस्तदा॥21॥ 
कालमृत्यू च सम्पूज्यौ सर्वारिष्टप्रशान्तये। यदा चाष्टभुजा पूज्या शुम्भासुरनिबर्हिणी॥22॥ 
नवास्या: शक्त य: पूज्यास्तदा रुद्रविनायकौ। नमो देव्या इति स्तोत्रैर्महालक्ष्मीं समर्चयेत्॥23॥
राजन्! जब केवल अठारह भुजाओं वाली महालक्ष्मी का अथवा दशमुखी काली का अष्टभुजा सरस्वती का पूजन करना हो, तब सब अरिष्टों की शान्ति के लिये इनके दक्षिणभाग में काल की और वामभाग में मृत्यु की भी भलीभाँति पूजा करनी चाहिये। जब शुम्भासुर का संहार करने वाली अष्टभुजा देवी की पूजा करनी हो, तब उनके साथ उनकी नौ शक्तियों का और दक्षिण भाग में रुद्र एवं वामभाग में गणेशजी का भी पूजन करना चाहिये (ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री, शिवदूती तथा चामुण्डा-ये नौ शक्ति याँ हैं)। नमो देव्यै.. इस स्तोत्र से महालक्ष्मी की पूजा करनी चाहिये॥21-23॥

अवतारत्रयार्चायां स्तोत्रमन्त्रास्तदाश्रया:। अष्टादशभुजा सैव पूज्या महिषमर्दिनी॥24॥
महालक्ष्मीर्महाकाली सैव प्रोक्ता सरस्वती। ईश्वरी पुण्यपापानां सर्वलोकमहेश्वरी॥25॥
तथा उनके तीन अवतारों की पूजा के समय उनके चरित्रों में जो स्तोत्र और मन्त्र आये हैं, उन्हीं का उपयोग करना चाहिये। अठारह भुजाओं वाली महिषासुरमर्दिनी महालक्ष्मी ही विशेषरूप से पूजनीय हैं; क्योंकि वे ही महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती कहलाती हैं। वे ही पुण्य पापों की अधीश्वरी तथा सम्पूर्ण लोकों की महेश्वरी हैं॥24-25॥ 

महिषान्तकरी येन पूजिता स जगत्प्रभु:। पूजयेज्जगतां धात्रीं चण्डिकां भक्त वत्सलाम्॥26॥
जिसने महिषासुर का अन्त करने वाली महालक्ष्मी की भक्ति पूर्वक आराधना की है, वही संसार का स्वामी है। अत: जगत् को धारण करने वाली भक्त वत्सला भगवती चण्डिका की अवश्य पूजा करनी चाहिये॥26॥ 

अघ्र्यादिभिरलंकारैर्गन्धपुष्पैस्तथाक्षतै:। धू पैर्दीपैश्च नैवेद्यैर्नानाभक्ष्यसमन्वितै:॥27॥
रुधिराक्ते न बलिना मांसेन सुरया नृप। (बलिमांसादिपूजेयं विप्रवज्र्या मयेरिता॥ तेषां किल सुरामांसैर्नोक्ता पूजा नृप क्वचित्।) प्रणामाचमनीयेन चन्दनेन सुगन्धिना॥28॥ 
कर्पूरैश्च ताम्बूलैर्भक्ति भावसमन्वितै:। वामभागेऽग्रतो देव्याश्छिन्नशीर्ष महासुरम्॥29॥
पूजयेन्महिषं येन प्राप्तं सायुज्यमीशया। दक्षिणे पुरत: सिंहं समग्रं धर्ममीश्वरम्॥30॥
वाहनं पूजयेद्देव्या धृतं येन चराचरम्। कुर्याच्च स्तवनं धीमांस्तस्या एकाग्रमानस:॥31॥
तत: कृताञ्जलिर्भूत्वा स्तुवीत चरितैरिमै:। एकेन वा मध्यमेन नैकेनेतरयोरिह॥32॥
चरितार्ध तु न जपेज्जपञिछद्रमवापनुयात्। प्रदक्षिणानमस्कारान् कृत्वा मूर्ध्नि कृताञ्जलि:॥33॥ 
क्षमापयेज्जगद्धात्रीं मुहुर्मुहुरतन्द्रित:। प्रतिश्लोकं च जुहुयात्पायसं तिलसर्पिषा॥34॥
 अ‌र्ध्य आदि से, आभूषणों से, गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप तथा नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थो से युक्त नैवेद्यों से, रक्त सिञ्चित बलि से, मांस से तथा मदिरा से भी देवी का पूजन होता है। (राजन्! बलि और मांस आदि से की जाने वाली पूजा ब्राह्मणों को छोडकर बतायी गयी है। उनके लिये मांस और मदिरा से कहीं भी पूजा का विधान नहीं है।) प्रणाम, आचमन के योग्य जल, सुगन्धित चन्दन, कपूर तथा ताम्बूल आदि सामग्रियों को भक्ति भाव से निवेदन करके देवी की पूजा करनी चाहिये। देवी के सामने बायें भाग में कटे मस्तकवाले महादैत्य महिषासुर का पूजन करना चाहिये, जिसने भगवती के साथ सायुज्य प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार देवी के सामने दक्षिण भाग में उनके वाहन सिंह का पूजन करना चाहिये, जो सम्पूर्ण धर्म का प्रतीक एवं षड्विध ऐश्वर्य से युक्त है। उसी ने इस चराचर जगत् को धारण कर रखा है। तदनन्तर बुद्धिमान् पुरुष एकाग्रचित हो देवी की स्तुति करे। फिर हाथ जोडकर तीनों पूर्वोक्त चरित्रों द्वारा भगवती का स्तवन करे। यदि कोई एक ही चरित्र से स्तुति करना चाहे तो केवल मध्यम चरित्र के पाठ से कर ले; किंतु प्रथम और उत्तर चरित्रों में से एक का पाठ न करे। आधे चरित्र का भी पाठ करना मना है। जो आधे चरित्र का पाठ करता है, उसका पाठ सफल नहीं होता। पाठ-समाप्ति के बाद साधक प्रदक्षिणा और नमस्कार कर तथा आलस्य छोडकर जगदम्बा के उद्देश्य से मस्तक पर हाथ जोडे और उनके बारम्बार त्रुटियों या अपराधों के लिये क्षमा प्रार्थना करे। सप्तशती का प्रत्येक श्लोक मन्त्ररूप है, उससे तिल और घृत मिली हुई खीर की आहुति दे॥27-34॥

जुहुयात्स्तोत्रमन्त्रैर्वा चण्डिकायै शुभं हवि:। भूयो नामपदैर्देवीं पूजयेत्सुसमाहित:॥35॥ 
अथवा सप्तशती में जो स्तोत्र आये हैं, उन्हीं के मन्त्रों से चण्डिका के लिये पवित्र हविष्य का हवन करे। हाम के पश्चात एकाग्रचित्त हो महालक्ष्मी देवी के नाम मन्त्रों को उच्चारण करते हुए पुन: उनकी पूजा करे॥35॥ 

प्रयत: प्राञ्जलि: प्रह्व: प्रणम्यारोप्य चात्मनि। सुचिरं भावयेदीशां चण्डिकां तन्मयो भवेत्॥36॥
तत्पश्चात् मन और इन्द्रियों को वश में रखते हुए हाथ जोड विनीत भाव से देवी को प्रणाम करे और अन्त:करण में स्थापित करके उन सर्वेश्वरी चण्डिका देवी का देरतक चिन्तन करे। चिन्तन करते-करते उन्हीं में तन्मय हो जाय॥36॥ 

एवं य: पूजयेद्भक्त्या प्रत्यहं परमेश्वरीम्। भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमापनुयात्॥37॥ 
 इस प्रकार जो मनुष्य प्रतिदिन भक्ति पूर्वक परमेश्वरी का पूजन करता है, वह मनोवाञ्छित भोगों को भोगकर अन्त में देवी का सायुज्य प्राप्त करता है॥37॥ 

यो न पूजयते नित्यं चण्डिकां भक्त वत्सलाम्। भस्मीकृत्यास्य पुण्यानि निर्दहेत्परमेश्वरी॥38॥ 
जो भक्त वत्सला चण्डी का प्रतिदिन पूजन नहीं करता, भगवती परमेश्वरी उसके पुण्यों को जलाकर भस्म कर देती हैं॥38॥ 

तस्मात्पूजय भूपाल सर्वलोकमहेश्वरीम्। यथोक्ते न विधानेन चण्डिकां सुखमाप्स्यसि॥39॥ 
इसलिये राजन्! तुम सर्वलोकमहेश्वरी चण्डिका का शास्त्रोक्त विधि से पूजन करो। उससे तुम्हें सुख मिलेगा॥39॥

अथ प्रधानिकं रहस्यम्

राजोवाच भगवन्नवतारा मे चण्डिकायास्त्वयोदिता:। एतेषां प्रकृतिं ब्रह्मन् प्रधानं वक्तु मर्हसि॥1॥
राजा बोले- भगवन्! आपने चण्डिका के अवतारों की कथा मुझसे कही। ब्रह्मन्! अब इन अवतारों की प्रधान प्रकृति का निरूपण कीजिये॥1॥

आराध्यं यन्मया देव्या: स्वरूपं येन च द्विज। विधिना ब्रूहि सकलं यथावत्प्रणतस्य मे॥2॥
द्विजश्रेष्ठ! मैं आपके चरणों में पडा हूँ। मुझे देवी के जिस स्वरूप की और जिस विधि से आराधना करनी है, वह सब यथार्थरूप से बतलाइये॥2॥

ऋषिरुवाच इदं रहस्यं परममनाख्येयं प्रचक्षते। भक्तोऽसीति न मे किञ्चित्तवावाच्यं नराधिप॥3॥ 
ऋषि कहते हैं-राजन्! यह रहस्य परम गोपनीय है। इसे किसी से कहने योग्य नहीं बतलाया गया है; किंतु तुम मेरे भक्त हो, इसलिये तुमसे न कहने योग्य मेरे पास कुछ भी नहीं है॥3॥

सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्त्रिगुणा परमेश्वरी। लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता॥4॥
त्रिगुणमयी परमेश्वरी महालक्ष्मी ही सबका आदि कारण हैं। वे ही दृश्य और अदृश्ष्यरूप से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित हैं॥4॥

मातुलुङ्गं गदां खेटं पानपात्रं च बिभ्रती। नागं लिङ्गं च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्धनि॥5॥ 
राजन! वे अपनी चार भुजाओं में मातुलुङ्ग (बिजौरे का फल), गदा, खेट (ढाल) एवं पानपात्र और मस्तक पर नाग, लिङ्ग तथा योनि-इन वस्तुओं को धारण करती हैं॥5॥

तप्तकाञ्चनवर्णाभा तप्तकाञ्चनभूषणा। शून्यं तदखिलं स्वेन पूरयामास तेजसा॥6॥
तपाये हुए सुवर्ण के समान उनकी कान्ति है, तपाये हुए सुवर्ण के ही उनके भूषण हैं। उन्होंने अपने तेज से इस शून्य जगत् को परिपूर्ण किया है॥6॥

शून्यं तदखिलं लोकं विलोक्य परमेश्वरी। बभार परमं रूपं तमसा केवलेन हि॥7॥
परमेश्वरी महालक्ष्मी ने इस सम्पूर्ण जगत् को शून्य देखकर केवल तमोगुणरूप उपाधि के द्वारा एक अन्य उत्कृष्ट रूप धारण किया॥7॥

सा भिन्नाञ्जनसंकाशा दंष्ट्राङ्कितवरानना। विशाललोचना नारी बभूव तनुमध्यमा॥8॥ 
वह रूप एक नारी के रूप में प्रकट हुआ, जिसके शरीर की कान्ति निखरे हुए काजल की भाँति काले रंग की थी। उसका श्रेष्ठ मुख दाढों से सुशोभित था। नेत्र बडे-बडे और कमर पतली थी॥8॥

खड्गपात्रशिर:खेटैरलंकृतचतुर्भुजा। कबन्धहारं शिरसा बिभ्राणा हि शिर:स्त्रजम॥9॥
उसकी चार भुजाएं ढाल, तलवार, प्याले और कटे हुए मस्तक से सुशोभित थीं। वह वक्ष:स्थल पर कबन्ध (धड) की तथा मस्तक पर मुण्डों की माला धारण किये हुए थी॥9॥

सा प्रोवाच महालक्ष्मीं तामसी प्रमदोत्तमा। नाम कर्म च मे मातर्देहि तुभ्यं नमो नम:॥10॥ 
इस प्रकार प्रकट हुई स्त्रियों में श्रेष्ठ तामसी देवी ने महालक्ष्मी से कहाञ्ा माताजी! आपको नमस्कार है। मुझे मेरा नाम और कर्म बताइये॥ १०॥

तां प्रोवाच महालक्ष्मीस्तामसीं प्रमदोत्तमाम्। ददामि तव नामानि यानि कर्माणि तानि ते॥11॥
तब महालक्ष्मी ने स्त्रियों में श्रेष्ठ उस तामसी देवी से कहा-मैं तुम्हें नाम प्रदान करती हूँ और तुम्हारे जो-जो कर्म हैं, उनको भी बतलाती हूँ,॥11॥

महामाया महाकाली महामारी क्षुधा तृषा। निद्रा तृष्णा चैकवीरा कालरात्रिर्दुरत्यया॥12॥ 
महामाया, महाकाली, महामारी, क्षुधा, तृषा, निद्रा, तृष्णा, एकवीरा, कालरात्रि तथा दुरत्यया-॥12॥

इमानि तव नामानि प्रतिपाद्यानि कर्मभि:। एभि: कर्माणि ते ज्ञात्वा योऽधीते सोऽश्रुते सुखम्॥13॥ 
ये तुम्हारे नाम हैं, जो कर्मो के द्वारा लोक में चरितार्थ होंगे। इन नामों के द्वारा तुम्हारे कर्मो को जानकर जो उनका पाठ करता है, वह सुख भोगता है॥13॥

तामित्युक्त्वा महालक्ष्मी: स्वरूपमपरं नृप। सत्त्‍‌वाख्येनातिशुद्धेन गुणेनेन्दुप्रभं दधौ॥14॥
राजन्! महाकाली से यों कहकर महालक्ष्मी ने अत्यन्त शुद्ध सत्त्‍‌वगुण के द्वारा दूसरा रूप धारण किया, जो चन्द्रमा के समान गौरवर्ण था॥ 14॥

अक्षमालाङ्कुशधरा वीणापुस्तकधारिणी। सा बभूव वरा नारी नामान्यस्यै च सा ददौ॥15॥
वह श्रेष्ठ नारी अपने हाथों में अक्षमाला, अङ्कुश, वीणा तथा पुस्तक धारण किये हुए थी। महालक्ष्मी ने उसे भी नाम प्रदान किये॥15॥

महाविद्या महावाणी भारती वाक् सरस्वती। आर्या ब्राह्मी कामधेनुर्वेदगर्भा च धीश्वरी॥16॥
महाविद्या, महावाणी, भारती, वाक्, सरस्वती, आर्या, ब्राह्मी, कामधेनु, वेदगर्भा और धीश्वरी (बुद्धि की स्वामिनी)- ये तुम्हारे नाम होंगे॥16॥

अथोवाच महालक्ष्मीर्महाकालीं सरस्वतीम्। युवां जनयतां देव्यौ मिथुने स्वानुरूपत:॥17॥
तदनन्तर महालक्ष्मी ने महाकाली और महासरस्वती से कहा-देवियों! तुम दोनों अपने-अपने गुणों के योग्य स्त्री-पुरुष के जोडे उत्पन्न करो॥17॥

इत्युक्त्वा ते महालक्ष्मी: ससर्ज मिथुनं स्वयम्। हिरण्यगभरै रुचिरौ स्त्रीपुंसौ कमलासनौ॥18॥
उन दोनों से यों कहकर महालक्ष्मी ने पहले स्वयं ही स्त्री-पुरुष का एक जोडा उत्पन्न किया। वे दानों हिरण्यगर्भ (निर्मल ज्ञान से सम्पन्न) सुन्दर तथा कमल के आसन पर विराजमान थे। उनमें से एक स्त्री थी और दूसरा पुरुष॥18॥

ब्रह्मन् विधे विरिञ्चेति धातरित्याह तं नरम्। श्री: पद्मे कमले लक्ष्मीत्याह माता च तां स्त्रियम्॥19॥
तत्पश्चात माता महालक्ष्मी ने पुरुष को ब्रह्मन्! विधे! विरिञ्च! तथा धात:! इस प्रकार सम्बोधित किया और स्त्री को श्री! पद्मा! कमला! लक्ष्मी! इत्यादि नामों से पुकारा॥19॥

महाकाली भारती च मिथुने सृजत: सह। एतयोरपि रूपाणि नामानि च वदामि ते॥20॥
इसके बाद महाकाली और महासरस्वती ने भी एक-एक जोडा उत्पन्न किया। इनके भी रूप और नाम मैं तुम्हें बतलाता हूँ॥20॥

नीलकण्ठं रक्त बाहुं श्वेताङ्गं चन्द्रशेखरम्। जनयामास पुरुषं महाकाली सितां स्त्रियम्॥21॥
महाकाली ने कण्ठ में नील चिह्न से युक्त , लाल भुजा, श्वेत शरीर और मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट धारण करने वाले पुरुष को तथा गोरे रंग की स्त्री को जन्म दिया॥21॥

स रुद्र: शंकर: स्थाणु: कपर्दी च त्रिलोचन:। त्रयी विद्या कामधेनु: सा स्त्री भाषाक्षरा स्वरा॥22॥ 
वह पुरुष रुद्र, शंकर, स्थाणु, कपर्दी और त्रिलोचन के नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा स्त्री के त्रयी, विद्या, कामधेनु, भाषा, अक्षरा और स्वरा- ये नाम हुए॥22॥

सरस्वती स्त्रियं गौरीं कृष्णं च पुरुषं नृप। नयामास नामानि तयोरपि वदामि ते॥23॥ 
राजन्! महासरस्वती ने गोरे रंग की स्त्री और श्याम रंग के पुरुष को प्रकट किया। उन दोनों के नाम भी मैं तुम्हें बतलाता हूँ॥23॥

विष्णु: कृष्णो हृषीकेशो वासुदेवो जनार्दन:। उमा गौरी सती चण्डी सुन्दरी सुभगा शिवा॥ 24॥ 
उनमें पुरुष के नाम विष्णु, कृष्ण, हृषीकेश, वासुदेव और जनार्दन हुए तथा स्त्री उमा, गौरी, सती, चण्डी, सुन्दरी, सुभगा और शिवा- इन नामों से प्रसिद्ध हुई॥24॥

एवं युवतय: सद्य: पुरुषत्वं प्रपेदिरे। चक्षुष्मन्तो नु पश्यन्ति नेतरेऽतद्विदो जना:॥25॥
इस प्रकार तीनों युवतियाँ ही तत्काल पुरुषरूप को प्राप्त हुई। इस बात को ज्ञाननेत्र वाले लोग ही समझ सकते हैं। दूसरे अज्ञानीजन इस रहस्य को नहीं जान सकते॥25॥

ब्रह्मणे प्रददौ पत्‍‌नीं महालक्ष्मीर्नृप त्रयीम्। रुद्राय गौरीं वरदां वासुदेवाय च श्रियम्॥26॥ 
राजन्! महालक्ष्मी ने त्रयीविद्यारूपा सरस्वती को ब्रह्मा के लिये पत्‍‌नीरूप में समर्पित किया, रुद्र को वरदायिनी गौरी तथा भगवान् वासुदेव को लक्ष्मी दे दी॥26॥

स्वरया सह सम्भूय विरिञ्चोऽण्डमजीजनत्। बिभेद भगवान् रुद्रस्तद् गौर्या सह वीर्यवान्॥ 25॥
इस प्रकार सरस्वती के साथ संयुक्त होकर ब्रह्माजी ने ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया और परम पराक्रमी भगवान् रुद्र ने गौरी के साथ मिलकर उसका भेदन किया॥27॥

अण्डमध्ये प्रधानादि कार्यजातमभून्नृप। महाभूतात्मकं सर्व जगत्स्थावरजङ्गमम्॥28॥
राजन्! उस ब्रह्माण्ड में प्रधान (महत्तत्त्‍‌व) आदि कार्यसमूह- पञ्चमहाभूतात् मक समस्त स्थावर-जङ्गमरूप जगत् की उत्पत्ति हुई॥28॥

पुपोष पालयामास तल्लक्ष्म्या सह केशव:। संजहार जगत्सर्व सह गौर्या महेश्वर:॥29॥ 
फिर लक्ष्मी के साथ भगवान् विष्णु ने उस जगत् का पालन-पोषण किया और प्रलयकाल में गौरी के साथ महेश्वर ने उस सम्पूर्ण जगत् का संहार किया॥29॥

महालक्ष्मीर्महाराज सर्वसत्त्‍‌वमयीश्वरी। निराकारा च साकारा सैव नानाभिधानभृत्॥30॥
महाराज! महालक्ष्मी ही सर्वसत्त्‍‌वमयी तथा सब सत्त्‍‌वों की अधीश्वरी हैं। वे ही निराकार और साकाररूप में रहकर नाना प्रकार के नाम धारण करती हैं॥30॥

नामान्तरैर्निरूप्यैषा नामन नान्येन केनचित्॥ॐ॥31॥
सगुणवाचक सत्य, ज्ञान, चित्, महामाया आदि नामान्तरों से इन महालक्ष्मी का निरूपण करना चाहिये। केवल एक नाम (महालक्ष्मी मात्र) से अथवा अन्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से उनका वर्णन नहीं हो सकता॥31॥

दुर्गा सप्तशती के पाठ का दिवस/वार अनुसार फल

दुर्गा सप्तशती के पाठ का दिवस/वार अनुसार फल


दुर्गा सप्तशती के तिथि अनुसार पाठ करने के फल

दुर्गा सप्तशती के तिथि अनुसार पाठ करने के फल


नवरात्री के नैवैध्य अनुसार फल


नवरात्री  के नैवैध्य अनुसार फल


दश महाविद्या


दश महाविद्या जिसकी उपासना से चतुर्मुख सृष्टि रचने में समर्थ होते हैं, विष्णु जिसके कृपा कटाक्ष से विश्व का पालन करने में समर्थ होते हैं, रुद्र जिसके बल से विश्व का संहार करने में समर्थ होते हैं, उसी सर्वेश्वरी जगन्माता महामाया के दस स्वरूपों का संक्षिप्त चरित्र प्रस्तुत है। देवी के 10 रूपों - काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला- का वर्णन तोडल तंत्र में किया गया है। शक्ति के यह रूप संसार के सृजन का सार है। इन शक्तियों की उपासना मनोकामनाओं की पूर्ति। सिद्धि प्राप्त करने के लिए की जाती है। देवताओं के मंत्रों को मंत्र तथा देवियों के मंत्रों को विद्या कहा जाता है। इन मंत्रों का सटीक उच्चारण अति आवश्यक है। ये दश महाविद्याएं भक्तों का भय निवारण करती हैं। जो साधक इन विद्याओं की उपासना करता है, उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सबकी प्राप्ति हो जाती है।


1. काली : दश महाविद्याओं में काली प्रथम है। महा भागवत के अनुसार महाकाली ही मुखय हैं। उन्हीं के उग्र और सौम्य दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दश महाविद्याएं हैं। कलियुग में कल्प वृक्ष के समान शीघ्र फलदायी एवं साधक की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करने में सहायक हैं। शक्ति साधना के दो पीठों में काली की उपासना श्यामापीठ पर करने योग्य है। वैसे तो किसी भी रूप में उन महामाया की उपासना फल देने वाली है परंतु सिद्धि के लिए उनकी उपासना वीरभाव से की जाती है।


2. तारा : भगवती काली को नीलरूपा और सर्वदा मोक्ष देने वाली और तारने वाली होने के कारण तारा कहा जाता है। भारत में सबसे पहले महर्षि वशिष्ठ ने तारा की आराधना की थी। इसलिए तारा को वशिष्ठाराधिता तारा भी कहा जाता है। आर्थिक उन्नति एवं अन्य बाधाओं के निवारण हेतु तारा महाविद्या का स्थान महत्वपूर्ण है। इस साधना की सिद्धी होने पर साधक की आय के नित नये साधन खुलने लगते हैं और वह पूर्ण ऐश्वर्यशाली जीवन व्यतीत कर जीवन में पूर्णता प्राप्त कर लेता है। इनका बीज मंत्र 'ह्रूं' है। इन्हें नीलसरस्वती के नाम से भी जाना जाता है। अनायास ही विपत्ति नाश, शत्रुनाश, वाक्-शक्ति तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिए तारा की उपासना की जाती है।


3. षोडशी : षोडशी माहेश्वरी शक्ति की सबसे मनोहर श्री विग्रह वाली सिद्ध देवी हैं। इनकी चार भुजाएं एवं तीन नेत्र हैं। ये शांत मुद्रा में लेटे हुए सदाशिव पर स्थित कमल के आसन पर आसीन हैं। जो इनका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता। षोडशी को श्री विद्या भी माना गया है। इनके ललिता, राज-राजेश्वरी, महात्रिपुरसुंदरी, बालापञ्चदशी आदि अनेक नाम हैं, वास्तव में षोडशी साधना को राज-राजेश्वरी इसलिए भी कहा गया है क्योंकि यह अपनी कृपा से साधारण व्यक्ति को भी राजा बनाने में समर्थ हैं। चारों दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें पंचवक्रा कहा जाता है। इनमें षोडश कलाएं पूर्ण रूप से विकसित हैं। इसलिए ये षोडशी कहलाती है। इन्हें श्री विद्या भी माना गया है और इनकी उपासना श्री यंत्र या नव योनी चक्र के रूप में की जाती है। ये अपने उपासक को भक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करती हैं। षोडशी उपासना में दीक्षा आवश्यक है।


4. भुवनेश्वरी : महाविद्याओं में भुवनेश्वरी महाविद्या को आद्या शक्ति अर्थात मूल प्रकृति कहा गया है। इसलिए भक्तों को अभय और समस्त सिद्धियां प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है। दशमहाविद्याओं में ये पांचवें स्थान पर परिगणित है। भगवती भुवनेश्वरी की उपासना पुत्र-प्राप्ति के लिए विशेष फलप्रदा है। अपने हाथ में लिए गये शाकों और फल-मूल से प्राणियों का पोषण करने के कारण भगवती भुवनेश्वरी ही 'शताक्षी' तथा 'शाकम्भरी' नाम से विखयात हुई।


5. छिन्नमस्ता : परिवर्तनशील जगत का अधिपति कबंध है और उसकी शक्ति छिन्नमस्ता है। छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय है। इनका सर कटा हुआ है और इनके कबंध से रक्त की तीन धाराएं प्रवाहित हो रही हैं जिसमें से दो धाराएं उनकी सहचरियां और एक धारा देवी स्वयं पान कर रही हैं इनकी तीन आंखें हैं और ये मदन और रति पर आसीन हैं। इनका स्वरूप ब्रह्मांड में सृजन और मृत्यु के सत्य को दर्शाता है। ऐसा विधान है कि चतुर्थ संध्याकाल में छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती सिद्धि हो जाती है। इस प्रकार की साधना के लिए दृढ़ संकल्प शक्ति की आवश्यकता होती है और जो साधक जीवन में निश्चय कर लेते हैं कि उन्हें साधनाओं में सफलता प्राप्त करनी है वे अपने गुरु के मार्गदर्शन से ही इन्हें संपन्न करते हैं।





7. धूमावती : धूमावती देवी महाविद्याओं में सातवें स्थान पर विराजमान हैं। धूमावती महाशक्ति अकेली है तथा स्वयं नियंत्रिका है। इसका कोई स्वामी नहीं है। इसलिए इन्हें विधवा कहा गया है। धूमावती उपासना विपत्ति नाश, रोग निवारण, युद्ध जय आदि के लिए की जाती है। यह लक्ष्मी की ज्येष्ठा हैं, अतः ज्येष्ठा नक्षत्र में उत्पन्न व्यक्ति जीवन भर दुख भोगता है। जो साधक अपने जीवन में निश्चिंत और निर्भीक रहना चाहते हैं उन्हें धूमावती साधना करनी चाहिए।


8. बगलामुखी : यह साधना शत्रु बाधा को समाप्त करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साधना है। ये सुधा समुद्र के मध्य में स्थित मणिमय मण्डप में रत्नमय सिंहासन पर विराजमान है। इस विद्या के द्वारा दैवी प्रकोप की शांति, धन-धान्य के लिए और इनकी उपासना भोग और मोक्ष दोनों की सिद्धि के लिए की जाती है। इनकी उपासना में हरिद्र माला, पीत पुष्प एवं पीत वस्त्र का विधान हैं इनके हाथ में शत्रु की जिह्वा और दूसरे हाथ में मुद्रा है।


9. मातंगी : मातंग शिव का नाम और इनकी शक्ति मातंगी है। इनका श्याम वर्ण है और चंद्रमा को मस्तक पर धारण किए हुए हैं। इन्होंने अपनी चार भुजाओं में पाश, अंकुश, खेटक और खडग धारण किया है। उनके त्रिनेत्र सूर्य, सोम और अग्नि हैं। ये असुरों को मोहित करने वाली और भक्तों को अभीष्ट फल देने वाली हैं। गृहस्थ जीवन को सुखमय बनाने के लिए मातंगी की साधना श्रेयस्कर है।


10. कमला : जिसके घर में दरिद्रता ने कब्जा कर लिया हो और घर में सुख-शांति न हो, आय का स्रोत न हो उनके लिए यह साधना सौभाग्य के द्वार खोलती है। कमला को लक्ष्मी और षोडशी भी कहा जाता है। वैसे तो शास्त्रों में हजारों प्रकार की साधनाएं दी गई हैं लेकिन उनमें से दस महत्वपूर्ण विद्याओं की साधनाओं को जीवन की पूर्णता के लिए महत्वपूर्ण बताया गया है। जो व्यक्ति दश महाविद्याओं की साधना को पूर्णता के साथ संपन्न कर लेता है। वह निश्चय ही जीवन में ऊंचा उठता है परंतु ध्यान रहे विधिवत् उपासना के लिए गुरु दीक्षा नितांत आवश्यक है। निष्काम भाव से भक्ति करने के लिए दश शक्तियों के नाम का उच्चारण करके भी इनका अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है। शक्ति पीठों में शक्ति उपासना के अंतर्गत नवदुर्गा व दशमहाविद्या साधना करने से शीध्र सिद्धि होती है।

दुर्गा सप्तशती के अध्याय अनुसार फल

दुर्गा सप्तशती के अध्याय अनुसार फल 



शारदीय नवरात्र व्रत कथा

शारदीय नवरात्र व्रत 

आद्गिवन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी पर्यंत शारदीय नवरात्र होता है। यह नवरात्र व्रत स्त्री-पुरुष दोनों कर सकते हैं। यदि स्वयं न कर सके तो पति, पत्नी, पुत्र या ब्राह्मण को प्रतिनिधि बनाकर व्रत पूर्ण कराया जा सकता है। सर्वप्रथम प्रातः काल स्वयं स्नानादि क्रियाओं से निवृत्त हो निष्कामपरक या कामनापरक संकल्प कर पूजा स्थान को गोमूत्र से लीपकर पवित्र कर लेना चाहिए। फिर सुंदर वेदी की रचना कर गणेशाम्बिका, वरुण, षोडशमातृका, सप्तघृत मातृका, नवग्रहादि देवों एवं सिंहासनारूढ़ जगज्जननी मां भगवती आद्या शक्ति का विधिवत् स्वास्ति वाचन, संकल्प, पुण्याहवाचन पूर्वक षोडशोपचार पूजन करें। स्वयं न कर सकें, तो विद्वान ब्राह्मण से सभी कृत्य पूर्ण कराएं। मां भगवती के सुंदर चरित (देवी भागवतांतर्गत) एवं दिव्य मंत्रों का जप करें। नित्य होम एवं श्री दुर्गासप्तशती का संपुटपाठ (कामना पूर्ति हेतु) करें। नवरात्र महापूजा वैज्ञानिकता से परिपूर्ण है। कहा गया है- शरद्वसन्तनामानौ दानवौ द्वौ भयंकरौ। तयोरूपद्रवशाम्यर्थ मित्रं पूजा द्विधा मता॥ अर्थात शरद् एवं वसंत नाम के दो भयंकर दानव विभिन्न रोगों के कारण हैं। इन ऋतुओं के परिवर्तन के समय महामारी, ज्वर, शीतला (बड़ी-छोटी), कफ, खांसी आदि विभिन्न रोगों के निवारणार्थ शारदीय तथा वासंती दो नवरात्र दुर्गा पूजाओं का प्रचलन आदि काल से ही है। रुद्रयामल तंत्र में कहा गया है- नवशक्ति समायुक्तां नवरात्रं तदुच्यते। नौ शक्तियों से युक्त होने के कारण इसे नवरात्र कहा गया है। नवाभिः नवरात्रिभेः सम्पद्यते यः स नवरात्रः। नवधा भक्ति, नवग्रह, रामनवमी, सीतानवमी ये सभी नौ शब्दों की महत्ता के द्योतक हैं। 

नवरात्र प्रसंग में श्री रामचरित मानस का बड़ा ही दिव्य वर्णन है। इस संदर्भ में जनमेजय एवं वेदव्यास का कथोपकथन श्रवण योग्य एवं अनुकरणीय है। उक्त कथोपकथन में जिज्ञासावश जनमेजय ने महात्मा वेदव्यास से पूछा कि भगवान राम ने नवरात्र व्रत क्यों किया था? उन्हें वनवास क्यों दिया गया? सीता जी का हरण हो जाने पर उन्हें प्राप्त करने के लिए उन्होंने क्या किया? व्यास जी ने कहा-''सीता हरण के समय की बात है। भगवान श्री राम सीता विरह से अत्यंत व्याकुल थे। उन्होंने भ्राता लक्ष्मण से कहा-'सौमित्रे! जानकी का कुछ भी पता न चला। उसके बिना मेरी मृत्यु बिलकुल निश्चित है। जानकी के बिना अयोध्या में मैं पैर ही न रख सकूंगा। राज्य हाथ से चला गया। बनवासी जीवन व्यतीत करना पड़ा। पिताजी सुरधाम सिधारे। स्त्री हरी गई। पता नहीं, दैव आगे क्या करेगा। मनुके उत्तम वंश में हमारा जन्म हुआ। राजकुमार होने की सुविधा हमें निश्चित सुलभ थी। फिर भी वन में हम असीम दुख भोग रहे हैं। सौमित्रे! तुम भी राजसी भोग का परित्याग करके दुर्दैव की प्रेरणा से मेरे साथ निकल पड़े। लो, अब यह कठिन कष्ट भोगो। लक्ष्मण! जनक सुता सीता बचपन के स्वभाववश हमारे साथ चल पड़ी। दुरात्मा दैव ने उस सुंदरी को भी ऐसे गुरुतर दुख देने वाली दशा में ला पटका। रावण के घर में वह सुंदरी सीता कैसे दुखदायी समय व्यतीत करेगी? उस साध्वी के सभी आचार बड़े पवित्र हैं। मुझ पर वह अपार प्रेम रखती है। लक्ष्मण! सीता रावण के वश में कभी भी नहीं हो सकती। भला जनक के घर उत्पन्न हुई वह सुंदरी किसी दुराचारिणी स्त्री की भांति कैसे रह सकती है। भरतानुज! यदि रावण का घोर नियंत्रण हुआ तो जानकी अपने प्राणों को त्याग देगी; किंतु उसके अधीन नहीं होगी - यह बिलकुल निश्चित बात है। वीर लक्ष्मण! कदाचित् जानकी का जीवन समाप्त हो गया तो मेरे भी प्राण शरीर से बाहर निकल जाएंगे - यह धु्रव सत्य है।' इस प्रकार कमललोचन भगवान राम विलाप कर रहे थे। तब धर्मात्मा लक्ष्मण ने उन्हें आश्वासन देते हुए सत्यतापूर्वक कहा- 'महाबाहो! संप्रति इस दैन्यभाव का परित्याग करके धैर्य रखिए। मैं उस नीच राक्षस रावण को मारकर माता जानकी को ले आऊंगा। जो सुखमय और दुखमय दोनों स्थितियों में धैर्य धारण कर के एक समान रहते हैं, वे ही बुद्धिमान हैं। कष्ट और वैभव प्राप्त होने पर उसमें रचे-पचे रहना, यह मंदबुद्धि मानवों का काम है। संयोग और वियोग तो होते ही रहते हैं। इसमें शोक क्यों करना चाहिए। जैसे प्रतिकूल समय आने पर राज्य से वंचित होकर वनवास हुआ है, माता सीता हरी गई हैं, वैसे ही अनुकूल समय आने पर संयोग भी हो जाएगा। भगवन् ! इसमें कुछ भी अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। अतः अब आप शोक का परित्याग कीजिए। बहुत- से वानर हैं। माता जानकी को खोजने के लिए वे चारों दिशाओं में जाएंगे। उनके प्रयास से माता सीता अवश्य आ जायेंगी, क्योंकि रास्ते के विषय में जानकारी प्राप्त हो जाने पर मैं वहां जाऊंगा और पूरी शक्ति लगाकर उस नीच रावण को मारने के पश्चात् जानकी को ले आऊंगा। अथवा भैया! सेना और शत्रुघ्नसहित भरत जी को बुलाकर हम तीनों एक साथ हो शत्रु रावण को मार डालेंगे। अतः आप शोक न करें। राघव! प्राचीन समय की बात है। महाराज रघु एक ही रथ पर बैठे और उन्होंने संपूर्ण दिशाओं पर विजय प्राप्त कर ली। उन्हीं के कुलदीपक आप हैं, अतः आपका शोक करना किसी प्रकार शोभा नहीं देता। मैं अकेले ही अखिल देवताओं और दानवों को जीतने की शक्ति रखता हूं। फिर मेरे सहायक भी हैं, तब कुलाधम रावण को मारने में क्या संदेह है? मैं जनकजी को भी सहायकरूप में बुला लूंगा। रघुनंदन ! मेरे इस प्रयास से देवताओं का कंटक दुराचारी वह रावण अवश्य ही प्राणों से हाथ धो बैठेगा। राघव! सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख चक्के की भांति निरंतर आते-जाते रहते हैं। सदा कोई एक स्थिति नहीं रह सकती। जिसका अत्यंत दुर्बल मन सुख और दुःख की परिस्थिति में तदनुकूल हो जाता है, वह शोक के अथाह समुद्र में डूबा रहता है। उसे कभी भी सुख नहीं मिल सकता। आप तो इनसे परे हैं। 'रघुनंदन ! बहुत पहले की बात है। इंद्र को भी दुख भोगना पड़ा था। संपूर्ण देवताओं ने मिलकर उनके स्थान पर नहुष की नियुक्ति कर दी थी। वे अपने पद से वंचित होकर डरे हुए कमल के कोष में बैठे रहे। बहुत वर्षों तक उनका अज्ञातवास चलता रहा। पर समय बदलते ही इंद्र को फिर अपना स्थान प्राप्त हो गया। मुनि के शाप से नहुष की आकृति अजगर के समान हो गई और उसे धरातल पर गिर जाना पड़ा। जब उस नरेश के मन में इंद्राणी को पाने की प्रबल इच्छा जाग उठी और वह ब्राह्मणों का अपमान करने लगा, तब अगस्त्य जी कुपित हो गए । इसके परिणामस्वरूप नहुष को सर्पयोनि मिली। अतएव राघव ! दुख की घड़ी सामने आने पर शोक करना उचित नहीं है। विज्ञ पुरुष को चाहिए, इस स्थिति में मन को उद्यमशील बनाकर सावधान रहे। महाभाग ! आपसे कोई बात छिपी नहीं है। जगत्प्रभो ! आप सब कुछ करने में समर्थ हैं, फिर साधारण मनुष्य की भांति मन में क्यों इतना गुरुतर शोक कर रहे हैं?' व्यासजी ने कहा-लक्ष्मण के उपर्युक्त वचन से भगवान राम का विवेक विकसित हो उठा। अब वे शोक से रहित होकर निश्चिंत हो गए। इस प्रकार भगवान राम और लक्ष्मण परस्पर विचार करके मौन बैठे थे। इतने में ही महाभाग नारद ऋषि आकाश से उतर आए। उस समय उनकी स्वर ग्राम से विभूषित विशाल वीणा बज रही थी। वे रथंतर साम को उच्च स्वर से गा रहे थे। मुनिजी भगवान् राम के पास पहुंच गए। उन्हें देखकर अमित तेजस्वी श्रीराम उठ खड़े हुए। उन्होंने मुनि को श्रेष्ठ पवित्र आसन दिया। पाद्य और अर्घ्य की व्यवस्था की। भलीभांति पूजा करने के उपरांत हाथ जोड़कर खड़े हो गए। फिर मुनि की आज्ञा से उनके पास ही भगवान बैठ गए। उस समय छोटे भाई लक्ष्मण भी उनके पास थे। उन्हें मानसिक कष्ट तो था ही। मुनिवर नारद ने प्रीतिपूर्वक उनसे कुशल पूछी। साथ ही कहा- 'राघव! तुम साधारण जनों की भांति क्यों इतने दुखी हो? दुरात्मा रावण ने सीता को हर लिया है- यह बात तो मुझे ज्ञात है। मैं देवलोक गया था। वहीं मुझे यह समाचार मिला। अपने मस्तक पर मंडराती हुई मृत्यु को न जानने से ही मोहवश उसकी इस कुकार्य में प्रवृत्ति हुई है। रावण का निधन ही तुम्हारे अवतार का प्रयोजन है। इसीलिए सीता का हरण हुआ है। 'जानकी पूर्वजन्म में मुनि की पुत्री थी। तप करना उसका स्वाभाविक गुण था। वह साध्वी वन में तपस्या कर रही थी। उसे रावण ने देख लिया। राघव ! उस दुष्ट ने मुनिकन्या से प्रार्थना की- 'तुम मेरी भार्या बन जाओ।' मुनिकन्या द्वारा घोर अपमानित होने पर दुरात्मा रावण ने उस तापसी का जूड़ा बलपूर्वक पकड़ लिया। अब तो तपस्विनी की क्रोधाग्नि भड़क उठी। मन में आया, इसके स्पर्श किए हुए शरीर को छोड़ देना ही उत्तम है। राम! उसी समय उस तापसी ने रावण को शाप दिया। 'दुरात्मन! त्ेरा संहार करने के लिए मैं धरातल पर एक उत्तम स्त्री के रूप में प्रकट होऊंगी। मेरे अवतार में माता के गर्भ से कोई संबंध नहीं रहेगा।' इस प्रकार कहकर उस तापसी ने शरीर त्याग दिया। वही यह सीता हैं, जो लक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई हैं। भ्रमवश सर्प को माला समझकर अपनाने वाले व्यक्ति की भांति अपने वंश का उच्छेद कराने के लिए ही रावण ने इनको हरा है। राघव! देवताओं ने रावण-वध के लिए सनातन भगवान श्रीहरि से प्रार्थना की थी। परिणामस्वरूप रघुकुल में तुम्हारे रूप में श्रीहरि का प्राकट्य हुआ है। महाबाहो! धैर्य रखो। सदा धर्म में तत्पर रहने वाली साध्वी सीता किसी के वश में नहीं हो सकतीं। उनका मन निरंतर तुम्हारे ध्यान में लीन रहता है। सीता के पीने के लिए स्वयं इंद्र एक पात्र में कामधेनु का दूध रखकर भेजते हैं और उस अमृत के समान मधुर दूध को वह पीती हैं। कमलपत्र के समान विशाल नेत्रवाली सीता को स्वर्गीय सुरभि गौ का दुग्धपान करने से भूख और प्यास का किंचित भी कष्ट नहीं है - यह स्वयं मैंने देखा है।' 'राघव! अब मैं रावणरवध का उपाय बताता हूं। इस आश्विन महीने में तुम श्रद्धापूर्वक नवरात्र का अनुष्ठान करने में लग जओ। राम! नवरात्र में उपवास, भगवती का आराधन तथा सविधि जप और होम संपूर्ण सिद्धियों का दान करने वाले हैं। बहुत पहले ब्रह्मा, विष्णु, महेश और स्वर्गवासी इंद्र तक इस नवरात्र का अनुष्ठान कर चुके हैं। राम! तुम सुखपूर्वक यह पवित्र नवरात्र व्रत करो। किसी कठिन परिस्थिति में पड़ने पर पुरुष को यह व्रत अवश्य करना चाहिए। राघव! विश्वमित्र, भृगु, वसिष्ठ और कश्यप भी इस व्रत का अनुष्ठान कर चुके हैं। अतएव राजेंद्र! तुम रावणवध के निमित्त इस व्रत का अनुष्ठान अवश्य करो। वृत्रासुर का वध करने के लिए इंद्र तथा त्रिपुरासुर वध के लिए भगवान शंकर भी इस सर्वोत्कृष्ट व्रत का अनुष्ठान कर चुके हैं। महामते। मधु को मारने के लिए भगवान श्रीहरि ने सुमेरु गिरि पर यह व्रत किया था। अतएव राघव! सावधानीपूर्वक तुम्हें भी सविधि यह व्रत अवश्य करना चाहिए।' भगवान राम ने पूछा- 'दयानिधे! आप सर्वज्ञानसंपन्न हैं। विधिपूर्वक यह बताने की कृपा करें कि वे कौन देवी हैं, उनका क्या प्रभाव है, वे कहां से अवतरित हुई हैं तथा उन्हें किस नाम से संबोधित किया जाता है?' नारदजी बोले - 'राम! सुनो, वह देवी आद्या शक्ति हैं। सदा-सर्वदा विराजमान रहती हैं। उनकी कृपा से संपूर्ण कामनाएं सिद्ध हो जाती हैं। आराधना करने पर दुखों को दूर करना उनका स्वाभाविक गुण है। रघुनंदन! ब्रह्मा प्रभृति सभी प्राणियों की निमित्त कारण वही हैं। उनके बिना कोई भी हिल-डुल तक नहीं सकता। मेरे पिता ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और शंकर संहार करते हैं। इनमें जो मंगलमयी शक्ति भासित होती है, वही यह देवी हैं। त्रिलोकी में जो सत-असत कहीं कोई भी वस्तु सत्तात्मक रूप से विराजमान है, उसकी उत्पत्ति में निमित्त कारण इस देवी के अतिरिक्त और कौन हो सकता है। जिस समय किसी की भी सत्ता नहीं थी, उस समय भी इन प्रकृति-शक्ति देवी का परिपूर्ण विग्रह विराजमान था। इन्हीं की शक्ति से एक पुरुष प्रकट होता है और उसके साथ यह आनंद में निमग्न रहती हैं। यह युग के आरंभ की बात है। उस समय यह कल्याणी निर्गुण कहलाती हैं। इसके बाद यह देवी सगुणरूप से विराजमान होकर तीनों लोकों की सृष्टि करती हैं। इनके द्वारा सर्वप्रथम ब्रह्मा आदि देवताओं का सृजन और उनमें शक्ति का आधान होता है। इन देवी के विषय में जानकारी प्राप्त हो जाने पर प्राणी जन्म मरण रूपी संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है। इन देवी को जानना परम आवश्यक है। वेद इसके बाद प्रकट हुए हैं, अर्थात वेदों की रचना करने का श्रेय इन्हीं को है। ब्रह्मा आदि महानुभावों ने गुण और कर्म के भेद से इन देवी के अनंत नाम बतलाए हैं और वैसे ही कल्पना भी की है। मैं कहां तक वर्णन करूं। रघुनंदन! 'अ'कार से 'क्ष'कारपर्यंत जितने वर्ण और स्वर प्रयुक्त हुए हैं, उनके द्वारा भगवती के असंखय नामों का ही संकलन होता है।' भगवान राम ने कहा-'विप्रवर! आप इस व्रत की संक्षिप्त विधि बतलाने की कृपा करें, क्योंकि अब मैं प्रीतिपूर्वक श्रीदेवी की उपासना करना चाहता हूं। श्री नारद जी बोले- 'राम! समतल भूमि पर एक सिंहासन रखकर उस पर भगवती जगदंबा को स्थापित करो और नौ रातों तक उपवास करते हुए उनकी आराधना करो। पूजा सविधि होनी चाहिए।' 'राजन! मैं इस कार्य में आचार्य का काम करूंगा; क्योंकि देवताओं का कार्य शीघ्र सिद्ध हो, इसके लिए मेरे मन में प्रबल उत्साह है।' व्यास जी कहते हैं-'परम प्रतापी भगवान राम ने मुनिवर नारदजी के कथन को सुनकर उसे सत्य माना। एक उत्तम सिंहासन बनवाने की व्यवस्था की और उस पर कल्याणमयी भगवती जगदंबा के विग्रह को स्थापित किया। व्रती रहकर भगवान ने विधि-विधान के साथ देवी-पूजन किया। उस समय आश्विन मास आ गया था। उत्तम किष्किंधा पर्वत पर यह व्यवस्था हुई थी। नौ दिनों तक उपवास करते हुए भगवान राम इस श्रेष्ठ व्रत को संपन्न करने में संलग्न रहे। विधिवत होम, पूजन आदि की विधि भी पूरी की गई। नारद जी के बतलाए हुए इस व्रत को राम और लक्ष्मण दोनों भाई प्रेमपूर्वक करते रहे। अष्टमी तिथि को आधी रात के समय भगवती प्रकट हुईं। पूजा के उपरांत भगवती सिंह पर बैठी हुई पधारीं और उन्होंने श्रीराम और लक्ष्मण को दर्शन दिए। पर्वत के ऊंचे शिखर पर विराजमान होकर भगवान राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों के प्रति मेघ के समान गंभीर वाणी में वे कहने लगीं। भक्ति की भावना ने भगवती को परम प्रसन्न कर दिया था। देवी ने कहा-'विशाल भुजा से शोभा पानेवाले श्रीराम! अब मैं तुम्हारे व्रत से अत्यंत संतुष्ट हूं। जो तुम्हारे मन में हो, वह अभिलषित वर मुझसे मांग लो। तुम भगवान नारायण के अंश से प्रकट हुए हो। मनु के पावन वंश में तुम्हारा अवतार हुआ है। रावणवध के लिए देवताओं के प्रार्थना करने पर ही तुम अवतरित हुए हो। इसके पूर्व भी मत्स्यावतार धारण करके तुमने भयंकर राक्षस का संहार किया था। उस समय देवताओं का हित करने की इच्छा से तुमने वेदों की रक्षा की थी। फिर कच्छपरूप में प्रकट होकर मंदराचल को पीठ पर धारण किया। इस तरह समुद्र का मंथन करके देवताओं को अमृत द्वारा शक्तिसंपन्न बनाया। राम! तुम वराहरूप से भी प्रकट हो चुके हो। उस समय तुमने पृथ्वी को दांत के अग्रभाग पर उठा रखा था। तुम्हारे हाथों हिरण्याक्ष की जीवन-लीला समाप्त हुई थी। रघुकुल में प्रकट होने वाले श्री राम! तुमने नृसिंहावतार लेकर प्रह्लाद की रक्षा की और हिरण्यकशिपु को मारा। प्राचीन समय में वामन का विग्रह धरकर तुमने बलि को छला। उस समय देवताओं का कार्य साधन करने को तुम इंद्र के छोटे भाई होकर विराजमान थे। भगवान विष्णु के अंश से संपन्न होकर जमदग्नि के पुत्र होने का अवसर तुम्हें प्राप्त हुआ। उस अवतार में क्षत्रियों को मारकर तुमने पृथ्वी ब्राह्मणों को दान कर दी। रघुनंदन! उसी प्रकार इस समय तुम राजा दशरथ के यहां पुत्र रूप से प्रकट हुए हो। तुम्हें अवतार लेने के लिए सभी देवताओं ने प्रार्थना की थी; क्योंकि उन्हें रावण महान् कष्ट दे रहा था। राजन्! अत्यंत बलशाली ये सभी वानर देवताओं के ही अंश हैं, ये तुम्हारे सहायक होंगे। इन सब में मेरी शक्ति निहित है। अनघ! तुम्हारा यह छोटा भाई लक्ष्मण शेषनाग का अवतार है। रावण के पुत्र मेघनाद को यह अवश्य मार डालेगा, इस विषय में तुम्हें कुछ भी संदेह नहीं करना चाहिए। अब तुम्हारा परम कर्तव्य है, इस वसंत ऋतु के नवरात्र में असीम श्रद्धा के साथ उपवास में तत्पर हो जाओ। तदनंतर पापी रावण को मारकर सुखपूर्वक राज्य भोगो। ग्यारह हजार वर्षों तक धरातल पर तुम्हारा राज्य स्थिर रहेगा। राघवेंद्र! राज्य भोगने के पश्चात पुनः तुम अपने परमधाम को सिधारोगे।'' व्यास जी ने कहा-''इस प्रकार कहकर भगवती अंतर्धान हो गईं। भगवान राम के मन में प्रसन्नता की सीमा न रही। नवरात्र-व्रत समाप्त करके दशमी के दिन भगवान राम ने प्रस्थान किया। प्रस्थान के पूर्व विजयादशमी की पूजा का कार्य संपन्न किया। जानकी वल्लभ भगवान श्री राम की कीर्ति जगत्प्रसिद्ध है। वे पूर्णकाम हैं। प्रकट होकर परमशक्ति की प्रेरणा पर सुग्रीव के साथ श्रीराम समुद्र के तट पर गए। साथ में लक्ष्मण जी थे। फिर समुद्र में पुल बांधने की व्यवस्था कर देव-शत्रु रावण का वध किया। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक देवी के इस उत्तम चरित्र का श्रवण करता है, उसे प्रचुर भोग भोगने के पश्चात् परमपद की उपलब्धि होती है।' 

इस प्रकार इस नवरात्र व्रत का अपना विशेष महत्व है। सर्वप्रथम भगवान श्री राम ने इस शारदीय नवरात्र पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था। इसीलिए यह राजस पूजा है। आद्या शक्ति की विशेष कृपा प्राप्ति हेतु रविवार को खीर, सोमवार को दूध, मंगलवार को केला, बुधवार को मक्खन, बृहस्पतिवार को खांड, शुक्रवार को चीनी तथा शनिवार को गाय का घृत नैवेद्य के रूप में अर्पण कर श्रेष्ठ ब्राह्मण को दान कर देना चाहिए। इससे सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं।