श्री दुर्गा सप्तशती

श्री दुर्गा सप्तशती

भुवनेश्वरी संहिता में कहा गया है- जिस प्रकार से ''वेद'' अनादि है, उसी प्रकार ''सप्तशती'' भी अनादि है। श्री व्यास जी द्वारा रचित महापुराणों में ''मार्कण्डेय पुराण'' के माध्यम से मानव मात्र के कल्याण के लिए इसकी रचना की गई है। जिस प्रकार योग का सर्वोत्तम ग्रंथ गीता है उसी प्रकार ''दुर्गा सप्तशती'' शक्ति उपासना का श्रेष्ठ ग्रंथ है | 

 'दुर्गा सप्तशती'के सात सौ श्लोकों को तीन भागों प्रथम चरित्र (महाकाली), मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) तथा उत्तम चरित्र (महा सरस्वती) में विभाजित किया गया है। प्रत्येक चरित्र में सात-सात देवियों का स्तोत्र में उल्लेख मिलता है प्रथम चरित्र में काली, तारा, छिन्नमस्ता, सुमुखी, भुवनेश्वरी, बाला, कुब्जा, द्वितीय चरित्र में लक्ष्मी, ललिता, काली, दुर्गा, गायत्री, अरुन्धती, सरस्वती तथा तृतीय चरित्र में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही तथा चामुंडा (शिवा) इस प्रकार कुल 21 देवियों के महात्म्य व प्रयोग इन तीन चरित्रों में दिए गये हैं। नन्दा, शाकम्भरी, भीमा ये तीन सप्तशती पाठ की महाशक्तियां तथा दुर्गा, रक्तदन्तिका व भ्रामरी को सप्तशती स्तोत्र का बीज कहा गया है। तंत्र में शक्ति के तीन रूप प्रतिमा, यंत्र तथा बीजाक्षर माने गए हैं। शक्ति की साधना हेतु इन तीनों रूपों का पद्धति अनुसार समन्वय आवश्यक माना जाता है। 

सप्तशती के सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा व चौथा अध्याय तथा शेष सभी अध्याय उत्तम चरित्र में रखे गये हैं। प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप ऊँ 'एं है। मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) का बीजाक्षर रूप 'हृी' तथा तीसरे उत्तम चरित्र महासरस्वती का बीजाक्षर रूप 'क्लीं' है। अन्य तांत्रिक साधनाओं में 'ऐं' मंत्र सरस्वती का, 'हृीं' महालक्ष्मी का तथा 'क्लीं' महाकाली बीज है। तीनों बीजाक्षर ऐं ह्रीं क्लीं किसी भी तंत्र साधना हेतु आवश्यक तथा आधार माने गये हैं। तंत्र मुखयतः वेदों से लिया गया है ऋग्वेद से शाक्त तंत्र, यजुर्वेद से शैव तंत्र तथा सामवेद से वैष्णव तंत्र का अविर्भाव हुआ है यह तीनों वेद तीनों महाशक्तियों के स्वरूप हैं तथा यह तीनों तंत्र देवियों के तीनों स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं।

'दुर्गा सप्तशती' के सात सौ श्लोकों का प्रयोग विवरण इस प्रकार से है। 

प्रयोगाणां तु नवति मारणे मोहनेऽत्र तु। 
उच्चाटे सतम्भने वापि प्रयोगाणां शतद्वयम्॥
 मध्यमेऽश चरित्रे स्यातृतीयेऽथ चरित्र के। 
विद्धेषवश्ययोश्चात्र प्रयोगरिकृते मताः॥ 
एवं सप्तशत चात्र प्रयोगाः संप्त- कीर्तिताः॥ 
तत्मात्सप्तशतीत्मेव प्रोकं व्यासेन धीमता॥ 

अर्थात इस सप्तशती में मारण के नब्बे, मोहन के नब्बे, उच्चाटन के दो सौ, स्तंभन के दो सौ तथा वशीकरण और विद्वेषण के साठ प्रयोग दिए गये हैं। इस प्रकार यह कुल 700 श्लोक 700 प्रयोगों के समान माने गये हैं।